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ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम 
प्यारे लोगो! 
संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते हैं। तभी निर्विकारता, विरक्ति आती है। इसलिए संतवाणी का पाठ अवश्य करना चाहिए। देखिए हमारी कैसी दशा है, हम अपने समय को फजूल बिताते हैं। अपने समय को फजूल नहीं बिताना चाहिए। जो समय निर्दिष्ट नहीं रखते वे भजन नहीं कर सकते हैं। जो नियम पूर्वक साधन नहीं करते और संयम से नहीं रहते वे भजन नहीं कर सकते हैं। पहले योग्य बनो तब अभिलाषा करो। केवल अभिलाषा से क्या  होता है। भजन करने की अभिलाषा यह है अपने को संयमित करना, ईश्वर प्रेमी बनना और विकारों से बचते रहना। लोभ- लालच परहेजगारी है। परहेज के बिना भजन में उन्नति नहीं हो सकती। योग्यता विहीन रहते हुए कोई भजन नहीं कर सकता है। संत कबीर साहब का वचन है- 

मोरे जियरा बडा अन्देसवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर।।
मोह का  शहर  कहर नर  नारी, दुइ  फाटक  घनघोर।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ  कठिन  झिंझोर।। 
संशय  नदी  अगाडी  बहती, विषम  धार  जल  जोर। 
क्या मनुवाँ तुम  गाफिल  सोवौ, इहवाँ मोर  न  तोर ।। 
निस दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर। 
काम   दिवाना   क्रोध  है  राजा, बसैं  पचीसो  चोर ।। 
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि तासों करो  निहोर । 
आवै  दरद  राह   तोहि  लावै, तब पैहो  निज  ओर ।। 
उलटि  पाछिलो   पैडो    पकडो, पसरा  मना बटोर। 
कहै कबीर  सुनो  भाइ  साधो, तब  पैहो  निज  ठौर ।। 

यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर । हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से  शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है। 
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।संयम यह न विषय की आशा । 
सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है। 

पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो | Maharshi Mehi Pravachan | महर्षि मेँहीँ | संतों का संग | Santmat Satsang | पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।

।। ॐ ।। श्री सद्गुरवे नमः ।।
प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो!
हमलोग सत्संग, संतों की वाणी के सहारे किया करते हैं। हमारे गुरु महाराज यही बतलाए हैं।
संत संसर्ग त्रैवर्ग पर परम पद प्राप्य नि:प्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।
संतों के संग का नाम सत्संग है। संतों का संग दुर्लभ है, पहचान दुर्लभ है। संत की पहचान होना साधारण प्राणी से असभव है। संत बड़े ऊँचे होते हैं। त्रयवर्ग पर परमपद तीनों पदों से ऊपर पहुँचे हुए; स्थूल, सूक्ष्म, कारण मण्डलों से ऊपर उठे हुए। विद्वान अर्थ, धर्म, काम; इन तीनों से परे को भी त्रयवर्ग कहते हैं। उनको धन चाहिए ऐसा नहीं। उनको धर्म-शिक्षा की कमी नहीं रहती। इहलोक, परलोक कामना से रहित होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण से जो ऊपर होंगे वे अर्थ, धर्म, काम में क्यों हँसेंगे? अथवा यह कि जो –
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।
संसार में रहकर कुछ-न-कुछ लिया करते ही हैं, मितभोगी होते हैं। विषयासक्त नहीं होते, स्वल्पभोगी होते हैं। बिना कुछ लिए संसार में कोई नहीं रह सकते। इसलिए वे थोड़ा लेते हैं। किंतु संसार का बड़ा उपकार करते हैं। संत लिखने-पढ़ने जाने या नहीं जाने; पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो; बिना पढ़े-लिखे भी पण्डित होते हैं। पहले लिखना नहीं था, केवल श्रवण-ज्ञान था, सुनते थे। कबीर साहब के लिए लोग कहते हैं कि वे बहुश्रुत थे। किंतु वे कहते हैं -
मैं मरजीवा समुंद का, डुबकी मारी एक। मुट्ठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक।।
इस प्रकार शरीर में डुबकी लगाने से ये ज्ञानी हुए। बहुश्रुत होने से, अंतर में गोता लगाने से ज्ञानी होते हैं। कोई पढ़े भी, सुने भी, अंतर में गोता भी लगाए। तीनों तरह तथा एक तरह भी; जैसे भगवान बुद्ध। उनके गुरु अवश्य थे, किंतु उनको उस ज्ञान से तृप्ति नहीं हुई। वे कहते हैं - मैं अपने-आप सीखकर अपना गुरु किसे बताऊँ? पूर्ण योगी वही हैं, जो पूर्ण योग द्वारा पद प्राप्त करते हैं। तो संत बहुत बोध रखते हैं, अमित बोध। इतने बड़े को साधारण लोग पहचान जाय, कैसे संभव है? कल्याण के एक लेख में आया था - मैं साधु, महात्मा, ज्ञानी आदि भले कहूँगा; किंतु संत नहीं कह सकता। संत उसे कह सकते हैं, जिनके लिए यह उपनिषद-वाक्य सार्थक हो चुका हो -

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
अर्थ - परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। तुलसी साहब -
जो कोई कहै साधु को चीन्हा। 
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।
इतने बड़े को कौन पहचाने? बरेली स्टेशन के बाद के एक स्टेशन पर एक सज्जन का गाड़ी पर चढ़ना - स्थितप्रज्ञ का लक्षण कहाँ? पूछने से संत की पहचान हो तब सत्संग करे, तो संतों की पहचान असंभव है। फिर सत्संग कैसे हो, तो गुरु महाराज ने कहा - संतों की वाणी को पढ़ो, यही सत्संग होगा। सत्संग का आधार संत है। बिना संत के सत्संग हो नहीं सकता।
सत्संग भगवान का निज अंग है। संसार दूर हो जाय, इसके लिए सत्संग है। क्या संसार छोड़ने योग्य है? देखो, यह सबको मानना पड़ेगा कि यह शरीर माता के पेट में था। लोगों को याद तो नहीं, किंतु यह कहते हैं कि सिर नीचे होता है और पैर ऊपर। माता के पेट में रहना ऊपर लटका हुआ कितना दु:ख होता होगा? अभी कोई वैसे लटका दे, तब देखिए क्या दुःख है? समय पूरा हुआ और निकले, तो क्रन्दन पसार दिया। जनमते समय बच्चा रोवे नहीं, तो लोग समझेंगे मरा हुआ है। रोना दुःख की पहचान है। इससे जाना जाता है, उसको दुःख अवश्य हुआ होगा। मुँह से कुछ बात नहीं कर सकते कि भूख लगी है या कुछ रोग। मलमूत्र त्याग हो, उसी पर पड़े रहना। अपने से हिल-डुल नहीं सकता।
सोने का झूला हो, मखमल का पलंग हो, कोई बच्चा उसपर पड़ा हुआ हो तो भी उसे क्या सुख? फिर कुछ बढ़े तब क्या हुआ ? जो मुँह में नहीं देने का वही दिया, जो नहीं छूने का वह भी छुआ। फिर बढ़े, कुछ पढ़े-लिखे नहीं, तो उसका भी भारी दु:ख। पढ़ने पर घर-गृहस्थी में गए, पारिवारिक झंझट। फिर दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से कौन बच सकता। श्रीराम भी रोए। इससे कौन बच सकता है? ‘काम’ आया कुकर्म में चले गए, लोगों की नजर से गिर गए। अपने मन में भारी ग्लानि हुई। ‘क्रोध आया हृदय जल गया, अंधे हो गए, क्या करें, नहीं करें, कुछ सूझता नहीं। ‘लोभ आया, जो नहीं लेने का वह ले लिया, चोरी कर ली, राजा से दंडित हुए; इसी प्रकार सब विकारों को जानिए, तो क्या इस प्रकार संसार में रहना पसंद करते हैं? कभी नहीं। इसीलिए संत कहते हैं - सत्संग करो।
प्रबल भव जनित त्रयव्याधि भेषज भक्ति, भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।।
औषध भक्ति है और वैद्य भक्त हैं। यह औषधि लेनी आवश्यक है। इसलिए सत्संग करना आवश्यक है। भक्ति करो तो किसकी? परमेश्वर की-ईश्वर की भक्ति समझने के लिए पहले ईश्वर को समझना होगा। ईश्वर नहीं है, सुनकर रुलाई आती है। आधार को छोड़कर कैसे रहोगे? आधार को मत छोड़ो। जो आधार तुमको अच्छा बनावेगा, उसको छोड़कर तुम कैसे रहोगे? वह ईश्वर हई है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।
यह ईश्वर है, जो सबमें भरा हुआ है ही। ईश्वर है, अंतरहित है, नहीं रहेगा सो नहीं, रहेगा ही। हई है, कहीं से आया नहीं है। जब कुछ नहीं था, तब भी वह था, रहेगा ही। सारी प्रकृति को भर कर कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता।
इसका नहीं होना असंभव है। यदि कहो, नहीं है। तो प्रश्न उदय होगा, सारे सांतों के पार में क्या होगा? अनंत कहना ही पड़ेगा। यदि कहो अनंत के पार में क्या है, तो तुम्हारा प्रश्न ही गलत है। अनंत का अंत ही नहीं होगा। उसके पार में कैसे क्या होगा? वह ईश्वर नहीं है, ऐसा कहने से गुंजाइश नहीं है। वह स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त नहीं हो सकता। उपनिषद् में सुना - मन से जिसका मनन नहीं हो सकता, बुद्धि भी नहीं जान सकती। लोग समझते हैं मन, बुद्धि आदि इन्द्रिय नहीं रहेगी तो हम कैसे देखेंगे, समझेंगे। आप बहुत शक्तिशाली हैं, जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी प्रकार आपके निज का विषय परमात्मा है। इन्द्रियों का संग छूटे शरीर-रहित होकर, अकेले होकर रहे तो आप महान हैं, तब परमात्मा को प्राप्त करेंगे। इन्द्रियों के संग से आपकी शक्ति घट जाती है। जैसे रोशनी पर आवरण पड़ने से उसका तेज कम हो जाता है। जैसे आँख से जो देखते हो, उसे ही रूप कहते हैं; उसी प्रकार जो चेतन-आत्मा से पकड़ा जाय, वह परमात्मा है। जन्मांध व्यक्ति चीजों के रूप को नहीं देख सकते। आँखवाले पहचानते हैं। यह बात दूसरी है।
परमात्मा सबका आधार है, इसी की भक्ति करो। जो विषयों में फँसते हैं, अपना दुर्नाम करवाते हैं। कभी-कभी राजा से दंडित होते हैं और अंत में नरक भी होता है, तो इस प्रकार विषय सुख से होता है। यदि परमात्मा की भक्ति करो, तब उस परमात्मा को प्राप्त कर देखो कि वह सुख कैसा है?
जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं, जिसका मन अशांत है, वह आत्मज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।

सेख सबूरी बाहरा, क्या हज कावे जाय। जाका दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाय।।

रूहे पाक से पहचान सकते हो, हवस से नहीं। पवित्र आत्मा से ईश्वर को पहचानो। शरीरयुक्त इन्द्रियों के संग के कारण जो मलिनता है, उससे जबतक ऊपर नहीं उठेंगे, तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकते। 

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं | GURU SADA SHISHYA KI SAMBHAL KARTE HAIN | PRAVACHAN-MAHARSHI-MEHI | SANTMAT-SATSANG

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं!
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः। 
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।१३।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसतेत् ।    -योगशिखोपनिषद अ0 1 
योग कहते हैं जोड़ने को, मिला देने को। ज्ञान कहते हैं, जानने को। हम किससे मिलें और हम मिलावें तो क्या मिलावें, किसको  किससे योग करें यह जानना पड़ेगा। क्या करेंगे, पहले इसको जानने की आवश्यकता है। बिना पहिचाने जानना परोक्ष ज्ञान है। यह परोक्ष ज्ञान श्रवण। मनन और निदिध्यासन;तीन दर्जों में है। श्रवण ज्ञान में कुछ सुनना, मनन ज्ञान में विचारना और निदिध्यासन उसको अभ्यास में लाना निदिध्यासन है। श्रवण ज्ञान अग्नि के समान है, वह मायाजल से बुझ जाती है। मनन ज्ञान बिजली के समान है, निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान है और अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, उससे सारे द्वैत प्रपंच नष्ट हो जाते हैं। अनुभव ज्ञान का दर्जा बड़ा ऊँचा है। बिना पहचाने ज्ञान पहले ही मिलावे किससे? चित्तवृत्ति मिलावे मिले किससे? ईश्वर से मिले। ईश्वर प्रणिधान में ईश्वर से मिलने के लिए कहता है। चित्तवृत्ति मिल जाए तो सिमटाव में आवेगी। सिमटाव से उर्ध्वगति होगी। संसार का सुख संतोष दायक नहीं है। संसार की सीमा के बाद परमात्मा है। यदि उसको पकड़ोगे तो परमानन्द को प्राप्त कर लोगे। उसको प्राप्त होने से शान्तिमय सुख उससे मिलने लगेगा। संसार  या माया का पसार परिवर्तनशील है, परन्तु परमात्मा जस का तस रहता है। परमात्मा इन्द्रियातीत है। वह काल-कर्म से बाहर है। उल्टे-उल्टे गुण होते हैं। परिवर्त्तनशील वाले सुख से संतुष्टी नहीं होती है, अपरिवर्तनशील वाले सुख से संतुष्टी होती है। अपरोक्ष ज्ञान-योग के द्वारा ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। 
जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत । 
तौं लौं मनु मणि कण्ठ विसारे, फिरत सकल वन बूझत।। 
  -संत सूरदास 
प्रभु से मिलने की कोशिश करनी ही भक्ति है। योग और भक्ति दोनों की महिमा बराबर है। इसमें बड़ी होशियारी चाहिए। 

जाकी सुरत लगी रहे जहवाँ ,कहै कबीर सो पहुँचे तहवाँ । 
नन्ह  बालक  नहिं  जोवने  नह   वृद्धि  कछु  बन्ध । 
वह अवसर  नहिं जानिये  जब आय  पडे  जमफंद ।। 

कुछ समय पहले जितने बच्चे जवान और बूढ़े आदमी हैं इनमें से कितने मर गए। हमारी वर्तमान की हालत मरने के समय में अच्छा रहे, ऐसा कर लीजिए। गीता में कहा गया है- 

प्रयाण काले मनसा चलेन  भक्त्त्या युक्तो योग बले न चैव।
भ्रुर्वोर्मध्ये   प्राणमावेश्य   सम्यक   पुरुष   मुपैति  दिव्यम् ।। 

मरने के समय में जो अचल मन से भक्ति-युक्त होकर योगबल से अपने भ्रुमध्य में दृष्टि को स्थिर रखते हुए शरीर छोड़ता है, वह परम प्रभु की प्राप्ति करता है।

सतगुरु शिष्य का बंधन काटे, गुरु का शिष्य विकार ते हाटे। 

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं। गुरु इसीलिए सत्संग का प्रचार करते हैं कि हमारा सेवक दुःखी न हो हमारे सेवक की संभाल हो। ऐसा ख्याल गुरु को तो रहता ही है। गुरु का दण्ड (छड़ी) कड़ी फटकार है। जो जीवन काल में बहुत अभ्यास करेगा, उसको कष्ट नहीं होगा। मरने के समय जो-जो भावना करेगें, वही-वही होगा। बुरी भावना मत कीजिए। मरने के बाद मुक्ति होगी, यह उपनिषद और संतवाणी को मान्य नहीं है। जीतेजी मुक्ति होगी। इसके लिए कितना अभ्यास करना होगा सो सोचिए। पूर्वापर (पहले की बात पर) विचार हुए बिना अर्थ ठीक नहीं होता है। तीन अवस्था से हट जाओ और त्रयगुणातीत हो जाओ। स्थान भेद से अवस्था भेद होता है। अवस्था भेद से ज्ञान भेद होता है। जाग्रत अवस्था से स्वप्न अवस्था में जाने से ज्ञान बदल जाता है। जगने के समय अगर आँख के स्थान में न हां, तो आँख नहीं देख सकती है। सबसे ऊपर आँख है। आँख से ऊपर कोई इन्द्रिय नहीं है। देखने से विशेष ज्ञान होता है। स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। आप वर्णों में बोलते हैं।ं वर्ण दो किस्म के होते हैं-स्वर और व्यंजन। स्वर अपने  आप बोला जाता है। कण्ठ में 26 स्वर हैं। स्वप्नावस्था में आप बोलते हैं कभी-कभी मुँह से आवाज निकल जाती है। इसलिए विश्वास होता है कि स्वप्नावस्था में हैं। हृदय में 12 कमल हैं। ‘अ’ सब अक्षरों में व्यापक है। हृदय में शब्द बन्द हो जाता है। कोई भावना शब्द के बिना नहीं होती। तुरीय अवस्था आँख से ऊपर जाने में होता है। आँख से ऊपर की जो पहली सीढ़ी है वहाँ से तुरीय अवस्था का आरम्भ है। छठे चक्र से सत्यलोक तक तुरीय अवस्था है। जहाँ तक यह भेद रहता है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ वहाँ तक तुरीय अवस्था रहती है। समरूप के तीन गुण का स्थान भँवर गुफा है। तुरीय में ब्रह्म की पहचान होती परन्तु उससे मिलाप नहीं। तुरीयातीता पद निर्विकल्प असमप्रज्ञात समाधि है। प्रभाशून्यं मनः शुन्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्। तुरीय में समप्रज्ञात समाधि है। किसी की आभा अच्छी नहीं होती है, किसी कि आभा अच्छी होती है। सब कोई अपनी-अपनी आभा में रहता है। सबको अपनी आभा है। भजन-सत्संग करने के स्थान में वही आभा चढ़ता है। जहाँ सत्संग भजन नहीं होता है वहाँ का आभा गड़बड़ हो जाता है। मैंने एक दिन भीख माँगा तो उस माता ने बड़ी गाली दी, क्योंकि उसका बेटा मर गया था। लकड़ी काटकर बेच लो या घास निकालकर बेच लो कुछ रोजगार करो 1909 ई0 की बात है। मैंने मन कहा कि जिस दिन तुम भीख माँगकर लाओगे मैं वह फेंक दूँगा। अब मुझे यह ख्याल नहीं है कि कोई मुझे खिलावे या नहीं खिलावे। गुरु के बताए हुए तरीके से जो चलता है, उसका कभी अकल्याण नहीं होता। जो इन्द्रियों के धर्म में बरत रहे हैं, वे गुरु नहीं है। जो इन्द्रियों के धर्म से बच बच के बरतते हैं, वे गुरु हैं। आयु छिन-छिन घटता जाता है और समय छिन-छिन बढ़ता जाता है। यह हरेक आदमी को सोचना चाहिए कि बहुत जरूरी काम क्या है? शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएँगे? शरीर छोड़कर कोई दुःख में जाना नहीं चाहता है। नरक दुःख का स्थान है। कब शरीर छूट जाएगा, इसका ठिकाना नहीं है। इस लिए ईश्वर भजन बहुत जरूरी है। हमारी आयु जितनी चली गई वह लौटकर नहीं आवेगी। आत्मा तो सदा रहेगी। यदि थोड़ी खुशी छोड़ने से बड़ी खुशी प्राप्त हो तो थोड़ी खुशी को छोड़कर बड़ी खुशी की ओर जाओ। विषय सुख थोड़ा सुख है। आत्म सुख प्राप्त करो। समय गुजरते देर नहीं होगी। अपनी सुरत की धारों को एकत्र करो या चित्तवृत्ति का निरोध करो, यही सुरत का बेड़ा बाँधना है। काम, क्रोध, अहंकार और तृष्णा और सब बिकारों को छोड़ दो, यह सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर का वचन है। 

कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।। 
सो ध्यानी  परमान, सुरत   से   अण्डा   सेवै । 
आप रहे  जल  माहिं, सूखे  में  अण्डा   देवै ।। 
जस  पनिहारी  कलस  भरे  मारग  में  आवै । 
कर छोडै मुख वचन चित्त  कलसा  में  लावै ।। 
फणि मणि धरै उतारि आपु  चरने  को  जावै । 
वह गाफिल ना परै, सुरति मणि   माहिं रहावै ।। 
पलटू कारज सब  करै, सुरति  रहै  अलगान । 
कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।।     
   -संत पलटू साहब 
कछुवी सूखी जमीन पर अण्डा देती है और अपने पानी में रहती है। वह अपने ख्याल को अण्डे पर लगाए रखती है, नहीं तो अण्डा सड़ जाएगा। इसी प्रकार तुम अपने ख्याल को ध्येय में लगाए रखो, यह मानस-ध्यान है। पनिहारी घड़े में पानी भरकर सिर पर रखती है और मुँह से बोलती जाती है। सखियों से बात करती है, फिर भी उसके सिर से घड़ा गिरता नहीं है। सुरत से घड़ा को पकड़ी हुई रहती है। यह भी मानस-ध् यान है। ऐसे भक्त इतने बड़े होते हैं कि उनका दर्शन बिरले को हो पाता है। एक का पदार्थ उससे दूर है और एक का पदार्थ उसके अंग-संग मौजूद है। सिर के ऊपर जो ख्याल है वह इन्द्रियों के ऊपर ख्याल है। कछुवी का ख्याल नीचे है। मणिवाला साँप मणि की ज्योति के अन्दर में घूमता है। यह उससे ऊँचा है। 
निशदिन रहै सुरत लौ लाई । पल पल राखो तिल ठहराई ।। 
हमारा तिल भी पनिहारी के तरह अंग-संग मौजूद है। जिस प्रकार पनिहारी घड़े को देखती है उसी प्रकार यदि साधक एक बार भी तिल को देख ले तो उनका ख्याल भी तिल पर  पल-पल रहेगा। जैसे मूर्त्ति का ध्यान करके मानस-ध्यान  होता है, उसी प्रकार तिल का भी मानस-ध्यान होता है। बारम्बार इन्द्रियों के ऊपर चढ़े तो  वह  संयमी  हो  जाएगा। प्रत्यक्ष ज्योति के अन्दर विचरण करना बिना ध्यान  के  नहीं होगा। जो ध्यान में सदा संलग्न रहेगा, वही ऐसा कर सकता है। अगर खास भक्ति करते हो तो मेरे उपदेश को मानो। ईश्वर ने जो तुम्हारी भलाई की है, उसके उपकार को मानो। जो आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान लाभ किया है, उसकी सेवा करो। दुःख, सुख, मान, अपमान और बड़ाई में अपने को समान रखो। जैसे बेंग (मेढ़क) साँप को पकड़ लेता है, उसी प्रकार काल ने हम सबको पकड़ लिया है, सिर्फ मुँह बाँकी है। हम काल से ग्रसित हैं। जीव भी संसारी वासना में फँसे हुए हैं। इस शरीर के लिए दूसरे को दुःख मत दो, नहीं तो तुम कपटी भक्त हो। कपट से लौ लगाने पर राम नहीं मिलते।
 प्यारे मित्रो! क्यों बिलम्ब करते हो, शीघ्रता से आकाश के द्वार पर  चढ़  जाओ। आँख बन्द कर देखो, तुम  अंधकार  में  हो। अंधकार  का गुण अज्ञानता है। इस अंधकार में रहने के कारण भ्रम और अज्ञानता में डूबे हुए हो। आकाश का द्वार तिल है। यह ऐसा निशाना है कि जिस निशाने पर स्थिर होने से देखोगे कि अंधकार नहीं है। अंधकार में पतलापन आ गया अर्थात कम हो गया। तुलसी साहब कहते हैं- 
श्यामकंज लीला गिरि सोई । तिल परिमान जान जन कोई् ।। 
छिन छिन मन को तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहि पावै।। 
श्रुति ठहरानि रहे आकासा। तिल खिडकि में निस दिन वासा।। 
गगन द्वार  दीसे  एक  तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।। 
प्रकाश हो गया यह बात ऐसी है कि  ‘खग जाना खग ही की भाषा’  करो तो अवश्य मालूम होगा। शरीर रूपी नगरी में अंधकार समाया हुआ है, इसमें भूल भरम होता है। नवों द्वारों में  वृत्ति नहीं रहने दो तो प्रकाश देखोगे। पहला परदा  अंधकार  है। आँख में ज्योति है तो तुम्हारे अन्दर में गर्मी है। प्रकाश है तो अन्दर में शब्द भी है। है वह जहाँ अंधकार और प्रकाश का मिलन स्थान है, आकाश का द्वार है। बाहरी सत्संग के बिना अंतरी सत्संग का ज्ञान नहीं होगा। 
है सब में सब ही ते न्यारा । 
जीव जन्तु जलथल सब ही में। शब्द व्यापत बोलनहारा।।   
अपने को जानने के लिए अपने अन्तर में अभ्यास करना चाहिए। अपने आप को पहचानो, चाहे तू कहीं रहो। तुम्हारे शरीर के अंदर ब्रह्म तत्त्व हई है। सहज में उससे मिल सकते हो। यदि अपने में खोजो तो वह प्रभु अवश्य मिलेगें।
निज तन खोज सज्जन बाहर न खोजना। 
अपने ही घट में हरि है अपने में खोजना।।

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...